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संपादकीय विश्लेषण- समय का सार

दल बदल विरोधी कानून पर सर्वोच्च न्यायालय का मत- यूपीएससी परीक्षा के लिए प्रासंगिकता

दल बदल विरोधी कानून: दल बदल विरोधी कानून उन सांसदों/विधायकों को अनर्ह घोषित करने का एक तंत्र है जो अपनी आधिकारिक पार्टी लाइन के विरुद्ध कार्य करते हैं। दल बदल विरोधी कानून यूपीएससी मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन के पेपर 2 (भारतीय संविधान- संसद एवं राज्य विधानमंडल – संरचना, कार्यकरण, कार्यों का संचालन, शक्तियां एवं विशेषाधिकार तथा इनसे उत्पन्न होने वाले मुद्दों) का हिस्सा है।

समाचारों में दल बदल विरोधी कानून पर सर्वोच्च न्यायालय का मत

  • महाराष्ट्र में हालिया राजनीतिक संकट ने इस प्रश्न को जन्म दिया है कि क्या शिवसेना के बागी दल-बदल विरोधी कानून के अंतर्गत निरर्हता से बच सकते हैं।
  • यह इस पृष्ठभूमि में है कि दल बदल के लिए निरर्ह सांसदों से संबंधित मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप घटित होता है – या तो असंतुष्टों को और समय प्रदान करना अथवा अनर्हता की कार्यवाही को बिना रुके चलने देना।

 

दल-बदल विरोधी कानून पर सर्वोच्च न्यायालय का मत

  • समय की भूमिका: जब सरकार को अल्पमत में लाने के लिए राजनीतिक युक्ति की बात आती है तो समय का तत्व होता है।
    • असंतुष्ट विधायकों को शासन को चुनाव में हराने के लिए पर्याप्त संख्या में एकत्रित होने हेतु समय चाहिए।
    • सत्तारूढ़ दलों को, प्रायः दल बदल के लिए निरर्हता के खतरे का उपयोग करते हुए शीघ्र ही अवसर की खिड़की को बंद करने की आवश्यकता होती है।
  • सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप: सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ने महाराष्ट्र विधानसभा में असंतुष्ट शिवसेना विधायकों को दल बदल विरोधी कानून के तहत डिप्टी स्पीकर के नोटिस का उत्तर देने हेतु 12 जुलाई तक का समय दिया।
    • इसने प्रभावी रूप से उनके लिए निरर्हता के खतरे के बिना अपने उद्देश्य को साकार करना संभव बना दिया है।
    • यह संदेहास्पद है कि क्या न्यायालय को दसवीं अनुसूची के अंतर्गत अंतिम निर्णय से पूर्व किसी भी स्तर पर  निरर्हता की कार्यवाही में न्यायिक हस्तक्षेप पर एक विशिष्ट प्रतिबंध के पश्चात ऐसा करना चाहिए था।
  • 1992 में (किल्होतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू): सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने दल बदल विरोधी कानून की वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि अध्यक्ष का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन था, हालांकि सीमित आधार पर।
    • इसने यह भी स्पष्ट किया कि यह अंतिम निर्णय के पश्चात घटित होना चाहिए एवं इसमें कोई अंतरिम आदेश नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि कोई अंतरिम निरर्हता या निलंबन हो।

महाराष्ट्र राजनीतिक संकट पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से उत्पन्न चिंता

  • विधायकों को उत्तर देने हेतु डिप्टी स्पीकर के सिर्फ दो दिनों की अनुमति के कारण हस्तक्षेप संभव हो सकता है;  किंतु यह संदेहास्पद है कि क्या न्यायालय को अब इस प्रश्न पर ध्यान देना चाहिए कि उनकी संभावित निरर्हता के पश्चात यह कब निर्धारित किया जा सकता है।
  • न्यायालय के निर्णय हैं जो कहते हैं कि प्राकृतिक न्याय का अनुपालन दिए गए दिनों की संख्या पर आधारित नहीं है, बल्कि इस बात पर आधारित है कि निर्णय से पूर्व पर्याप्त अवसर प्रदान किया गया था अथवा नहीं।
  • नबाम रेबिया (2016) में एक निष्कर्ष के आधार पर कि एक पीठासीन अधिकारी को किसी भी दल बदल शिकायत पर निर्णय नहीं लेना चाहिए, जबकि स्वयं पीठासीन अधिकारी को हटाने का प्रस्ताव लंबित हो, असंतुष्टों ने डिप्टी स्पीकर को हटाने के लिए एक प्रस्ताव भेजा।
    • जब उन्होंने इसे निरस्त कर दिया, तो न्यायालय में अस्वीकृति पर भी प्रश्न उठाया गया था, इस प्रकार डिप्टी स्पीकर (उपाध्यक्ष) की न्यायिक शक्ति पर एक क्षेत्राधिकार का प्रश्न उठाया गया था, जिसे स्पीकर (अध्यक्ष) की अनुपस्थिति में निरर्हता के प्रश्नों का निर्णय करना होता है।
    • पीठासीन अधिकारी को हटाने का प्रस्ताव निरर्हता की कार्यवाही को दरकिनार करने की चाल नहीं होनी चाहिए।

दल बदल विरोधी कानून- विधायकों की निरर्हता

निष्कर्ष

  • जब संविधान द्वारा दल बदल को एक गंभीर खतरे के रूप में देखा जाता है, तो न्यायालयों को इसे आगे प्रोत्साहन देने हेतु कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। गलत तरीके से निरर्ह ठहराए गए व्यक्तियों के रक्षा करने का कर्तव्य महत्वपूर्ण है, किंतु ऐसा उन दोषियों को उत्तरदायी ठहराना है जिनके इरादे संदिग्ध हैं।

 

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