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संपादकीय विश्लेषण- सोप और वेलफेयर डिबेट

सोप और वेलफेयर डिबेट- यूपीएससी परीक्षा के लिए प्रासंगिकता

  • जीएस पेपर 2: शासन, प्रशासन एवं चुनौतियां- विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए सरकार की नीतियां एवं अंतः क्षेप तथा उनकी अभिकल्पना एवं कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे।

सोप और वेलफेयर डिबेट-चर्चा में क्यों है?

  • हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के ‘मुफ्त उपहार’ (फ्रीबीज) के मुद्दे की जांच के लिए हितधारकों के एक निकाय के गठन के निर्णय से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या इस तरह के दूरगामी कवायद पर विधायिका को दरकिनार किया जा सकता है।

 

चुनावों में मुफ्त उपहारों पर चिंता

  • अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने अथवा चुनाव पूर्व के अव्यवहार्य वादों पर मतदाताओं द्वारा संसूचित निर्णय लेने पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले ‘मुफ्त उपहार’ पर एक सामान्य चिंता उचित प्रतीत होती है।
  • इस बात पर चिंता कि ‘मुफ्त उपहार’ क्या हैं और कमजोर वर्गों की रक्षा के लिए वैध कल्याणकारी उपाय क्या हैं।
    • ये अनिवार्य रूप से राजनीतिक प्रश्न हैं जिनके लिए न्यायालय के पास कोई उत्तर नहीं हो सकता है।
  • मुफ्त उपहारों में हस्तक्षेप करने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर चिंता, जो एक विधायी मामला है।

 

सर्वोच्च न्यायालय का अवलोकन

भारत के मुख्य न्यायाधीश, एन.वी. रमना ने चुनाव से पहले ‘मुफ्त उपहार’ के वितरण या ‘मुफ्त उपहार’ के वादे के खिलाफ एक याचिका की सुनवाई करने वाली पीठ की अध्यक्षता की।

  • इसने कहा कि न्यायालय दिशानिर्देश जारी नहीं करने जा रही है, किंतु मात्र यह सुनिश्चित करेगी कि नीति आयोग, वित्त आयोग, विधि आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक एवं राजनीतिक दलों जैसे हितधारकों से सुझाव ग्रहण किए गए हैं।
  • ये सभी संस्थान भारत के चुनाव आयोग (इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया/ईसीआई) तथा सरकार को एक रिपोर्ट प्रस्तुत कर सकते हैं।
  • एक सुझाव है कि संसद इस मुद्दे पर चर्चा कर सकती है, खंडपीठ (बेंच) को संशय हुआ, जिसने महसूस किया कि कोई भी दल इस मुद्दे पर बहस नहीं चाहेगा, क्योंकि वे सभी इस तरह की रियायतों का समर्थन करते हैं।
  • पीठ ने चुनाव आयोग को ‘आदर्श घोषणा पत्र’ (मॉडल मेनिफेस्टो) तैयार करने का भी विरोध किया क्योंकि यह एक खाली औपचारिकता होगी।
  • लोकलुभावन उपायों पर न्यायालय की चिंता सरकार के साथ भी प्रतिध्वनित होती है, जैसा कि  सॉलिसिटर-जनरल ने प्रस्तुत किया कि ये मतदाता के संसूचित निर्णय लेने को विकृत करते हैं; तथा यह कि अनियंत्रित लोकलुभावनवाद एक आर्थिक आपदा का कारण बन सकता है।

 

सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार (2013) निर्णय

  • सर्वोच्च न्यायालय ने इन प्रश्नों को संबोधित किया एवं यह निर्धारित किया कि ये पक्ष कानून एवं नीति से संबंधित हैं।
  • इसने टेलीविजन सेटों या उपभोक्ता वस्तुओं के वितरण को इस आधार पर बरकरार रखा कि योजनाएं महिलाओं, किसानों एवं निर्धन वर्गों को लक्षित करती हैं।
    • इसमें कहा गया है कि ये निर्देशक सिद्धांतों को आगे बढ़ाने के लिए थे।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि जब तक विधायिका द्वारा स्वीकृत विनियोगों के आधार पर सार्वजनिक धन  का व्यय किया जाता है, तब तक उन्हें न तो अवैध घोषित किया जा सकता है और न ही ऐसी वस्तुओं के वादे को ‘भ्रष्ट आचरण’ कहा जा सकता है।
  • हालांकि, इसने चुनाव आयोग को घोषणा पत्र की सामग्री को विनियमित करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने का निर्देश दिया था।

 

मुफ्त उपहारों पर भारत के निर्वाचन आयोग (ईसीआई) का रुख

एस. सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार (2013) के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के पश्चात,  भारत के निर्वाचन आयोग ने निम्नलिखित उपाय किए-

  • निर्वाचन (चुनाव) आयोग ने अपने आदर्श आचार संहिता में एक शर्त शामिल की कि दलों को ऐसे वादों से बचना चाहिए जो “चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता को दूषित करते हैं अथवा मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव डालते हैं”।
  • इसमें कहा गया है कि मात्र वही वादे किए जाने चाहिए जिन्हें पूरा किया जाना संभव हो एवं घोषणापत्र में वादा किए गए कल्याणकारी उपायों के लिए तर्क होना चाहिए एवं इसे वित्त पोषण के साधनों का संकेत देना चाहिए।

निष्कर्ष

  • लोकलुभावन रियायतों एवं चुनाव-पूर्व प्रलोभनों से कल्याणकारी उपायों को अलग करना या राजकोषीय उत्तरदायित्व तथा राजकोषीय अवधान के दायित्वों को जोड़ने का कार्य विधायिका द्वारा न कि न्यायपालिका द्वारा किया जाना चाहिए ।

 

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