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केरल का लोकायुक्त संशोधन विवाद

केरल का लोकायुक्त संशोधन विवाद- यूपीएससी परीक्षा के लिए प्रासंगिकता

  • सामान्य अध्ययन II- राजव्यवस्था एवं शासन।

केरल का लोकायुक्त संशोधन चर्चा में क्यों है?

  • केरल विधानसभा ने बहिष्कार के बीच केरल लोकायुक्त (संशोधन) विधेयक पारित किया।

 

लोकपाल-लोकायुक्त कौन हैं?

  • लोकपाल-लोकायुक्त शब्द का प्रथम बार प्रयोग 1966 में मोरारजी देसाई की अध्यक्षता वाले प्रशासनिक सुधार आयोग की एक रिपोर्ट में किया गया था।
  • नेताओं  एवं सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध जनता की शिकायतों के निवारण के लिए एक लोकपाल की  प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए क्योंकि भ्रष्टाचार की व्यापकता के कारण इसकी आवश्यकता बहुत बढ़ गई थी।
  • लोकपाल पर प्रथम विधेयक 1968 में लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था जो सदन के विघटन के साथ समाप्त हो गया था।
  • अन्ना हजारे के आंदोलन एवं नागरिक समाज की सक्रिय भागीदारी ने सरकार पर अत्यधिक नैतिक दबाव उत्पन्न किया जिसके कारण अंततः 2013 में लोकपाल विधेयक को पारित किया गया।

 

लोकपाल का गठन

  • लोकपाल कोई सामान्य जांच संस्था नहीं है।
  • इसकी अध्यक्षता भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश अथवा सेवानिवृत्त न्यायाधीश करते हैं।
  • इसमें आठ सदस्य होते हैं, जिनमें से चार न्यायिक सदस्य होते हैं।
  • इस प्रकार संपूर्ण व्यवस्था न्यायाधीशों अथवा न्यायिक सदस्यों से भरी हुई होती है।
  • लोकपाल के पास क्रमशः जांच एवं अभियोजन से संबंधित एक अन्वेषण स्कंध तथा एक अभियोजन स्कंध है।
  • लोकपाल के निष्कर्षों के आधार पर अभियोजन निदेशक ने विशेष न्यायालय में वाद दायर करते हैं।

 

लोकपाल के दायरे में कौन आते हैं?

  • लोकपाल के पास प्रधानमंत्री, मंत्रियों, संसद सदस्यों, ए, बी, सी तथा डी समूह के अधिकारियों एवं केंद्र सरकार के अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने का अधिकार क्षेत्र है।
  • जांच के निष्कर्ष के पश्चात, लोकपाल विशेष न्यायालय में वाद दाखिल कर सकता है यदि निष्कर्ष में प्रधान मंत्री, मंत्रियों या सांसदों द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध प्रकट होता है।
  • यद्यपि, लोकपाल के पास राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री अथवा किसी मंत्री को पद से हटाने के लिए कहने की शक्ति नहीं है।

 

राज्यों के संबंध में क्या है?

  • लोकपाल  एवं लोकायुक्त अधिनियम राज्यों को सार्वजनिक पदाधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार से संबंधित शिकायतों से निपटने के लिए कानून द्वारा लोकायुक्त स्थापित करने की शक्ति प्रदान करता है।
  • कुछ राज्यों ने पूर्व में ही लोकायुक्त स्थापित कर लिए हैं। उदाहरण के लिए, 1971 में महाराष्ट्र एवं 1999 में केरल।

 

केरल का विवाद क्या है?

  • केरल लोकायुक्त विवाद पर एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्राप्त करने के लिए, संसद द्वारा अधिनियमित लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम की योजना को समझना आवश्यक है।
  • अधिनियम का लंबा शीर्षक कहता है: “कुछ सार्वजनिक पदाधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए संघ हेतु लोकपाल एवं राज्यों के लिए लोकायुक्त के एक निकाय की स्थापना के लिए एक अधिनियम …” ।
  • इस प्रकार, लोकपाल की कल्पना एक ऐसे निकाय के रूप में की जाती है जो भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करेगा।
  • यह मूल रूप से एक जांच निकाय है जिसका कार्य त्वरित एवं निष्पक्ष जांच करना तथा भ्रष्टाचार के मामलों का अभियोजन करना है।

 

संशोधन से संबंधित मुद्दे

  • संशोधन लोकायुक्त की संस्तुतियों पर विचार करने के लिए सक्षम प्राधिकारी से संबंधित थे।
  • लोकायुक्त की ओर से मुख्यमंत्री के विरुद्ध किसी भी प्रतिकूल निर्णय के मामले में, सक्षम प्राधिकारी अब राज्यपाल के स्थान पर विधान सभा होगी जैसा कि वर्तमान अधिनियम में निर्धारित है।
  • संशोधन राज्यपाल की शक्तियों को छीनने का प्रयास करता है।
  • लोकायुक्त ने अपनी कुछ शक्तियों को छीनने के प्रयास पर प्रसन्नता व्यक्त की है।

 

केरल सरकार के तर्क

  • दूसरी ओर, सरकार का दावा है कि संशोधन के माध्यम से मूल अधिनियम में एक प्रावधान जो असंवैधानिक है, उसे कर्तित किया गया है।
  • इससे पूर्व इसने लोकायुक्त को राज्यपाल को, भ्रष्टाचार का दोषी पाए जाने पर किसी मुख्यमंत्री या मंत्री को हटाने का निर्देश देने का अधिकार प्रदान किया था।
  • इसका अर्थ यह हुआ कि लोकायुक्त को राज्यपाल के पद से ऊपर होना था।

 

विधिक एवं संवैधानिक निहितार्थ

  • एक, एक जांच निकाय के पास अपने निष्कर्षों के आधार पर लोक सेवक को अपने पद से त्यागपत्र देने का निर्देश देने हेतु विधिक अधिकार नहीं है।
  • यह केवल सक्षम प्राधिकारी को अपने निष्कर्ष संदर्भित कर सकता है अथवा जैसा कि लोकपाल अधिनियम में प्रावधान किया गया है, विशेष न्यायालय में मामला दर्ज कर सकता है।
  • लोकायुक्त मूल रूप से भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम से संबंधित मामलों की जांच करने के लिए कुछ शक्तियों से युक्त एक जांच निकाय है।
  • इस निकाय की एकमात्र विशेषता यह है कि इसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश  अथवा उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश करते हैं।
  • किंतु यह एक जांच निकाय के रूप में लोकायुक्त के मूल चरित्र को नहीं बदलता है।
  • मुख्यमंत्री अथवा मंत्री राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं (अनुच्छेद 164)।
  • भारत का संविधान राज्यपाल पर अपने प्रसादपर्यंत को वापस लेने के लिए किसी बाहरी दबाव पर विचार नहीं करता है।
  • सरकारिया आयोग ने सुझाव दिया था कि राज्यपाल किसी मुख्यमंत्री को तभी बर्खास्त कर सकता है जब वह विधानसभा में अपना बहुमत खो देता है एवं पद त्याग करने  से इनकार कर देता है।
  • सरकारिया आयोग की इस संस्तुति को सर्वोच्च न्यायालय ने मान लिया है।
  • एक अन्य अवसर जब राज्यपाल अपना प्रसादपर्यंत वापस ले सकता है, वह यह है कि मुख्यमंत्री को एक आपराधिक मामले में दोषी ठहराया गया था एवं कम से कम दो वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई थी।
  • अन्य शब्दों में, एक मुख्यमंत्री को सदन में बहुमत प्राप्त होने पर त्यागपत्र देने हेतु नहीं कहा जा सकता है।
  • राज्यपाल, एक उच्च संवैधानिक प्राधिकारी होने के नाते, जहां तक ​​उनके संवैधानिक कर्तव्यों एवं कार्यों का संबंध है, एक विशेष रीति से कार्य करने के लिए कानून द्वारा बाध्य नहीं किया जा सकता है।

 

अन्य विवादास्पद प्रावधान

  • कुछ अन्य प्रावधान भी हैं जो विधिक जांच के दायरे में नहीं आ सकते हैं।
  • उदाहरण के लिए, इस कानून में ‘लोक सेवक’ की परिभाषा में राजनीतिक दलों के पदाधिकारी सम्मिलित हैं।
  • मूल रूप से, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम सरकार एवं संबद्ध एजेंसियों, वैधानिक निकायों, निर्वाचित निकायों इत्यादि में भ्रष्टाचार से संबंधित है।
  • राजनीतिक दलों के पदाधिकारी इस कानून की सीमा के दायरे में नहीं आते हैं। अतः, यह समझना कठिन है कि उन्हें लोकायुक्त अधिनियम के दायरे में किस प्रकार लाया जा सकता है।
  • इस कानून में एक अन्य समस्यात्मक प्रावधान वह है जो लोकायुक्त (धारा 12) की रिपोर्ट से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि लोकायुक्त भ्रष्टाचार के आरोप की पुष्टि होने पर, कार्रवाई की संस्तुति के साथ निष्कर्षों को सक्षम प्राधिकारी को भेजेगा,  जिसके द्वारा लोकायुक्त की संस्तुति के अनुसार कार्रवाई करने की अपेक्षा है।
  • इसमें आगे कहा गया है कि यदि लोकायुक्त सक्षम प्राधिकारी द्वारा की गई कार्रवाई से संतुष्ट हैं, तो वह मामले को बंद कर देंगे।
  • प्रश्न यह है कि लोकायुक्त एक भ्रष्टाचार के मामले को कैसे बंद कर सकता है जो एक आपराधिक मामला है  तथा जिसमें तीन से सात वर्ष के कारावास का प्रावधान है।
  • लोकपाल जांच के बाद न्यायालय में केस फाइल करता है। केंद्रीय कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके तहत लोकपाल मामले को  न्यायालय में पहुंचने से पूर्व ही बंद कर सकता है।
  • लोकायुक्त के न्यायालय के रूप में न होने के कारण किसी भी परिस्थिति में भ्रष्टाचार के मामले को बंद करने की  विधिक क्षमता नहीं है।

 

आगे की राह

  • केरल लोकायुक्त अधिनियम की विधानसभा की एक समिति द्वारा पुनः जांच की जानी चाहिए एवं इसे लोकपाल अधिनियम के समान स्तर पर लाया जाना चाहिए।
  • भ्रष्ट पदाधिकारियों को दंडित करने का प्रयास करने वाले विधान को विवादों से ऊपर रखा जाना चाहिए।

 

प्रस्तावना में “समाजवादी” एवं ” पंथनिरपेक्ष” शब्द भारत का प्रथम डार्क स्काई रिजर्व इन्फ्लेटेबल एयरोडायनामिक डिसेलेरेटर (आईएडी) शिक्षक दिवस 2022: शिक्षकों को राष्ट्रीय पुरस्कार 2022
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