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विनिमय दर के प्रकार
स्वतंत्र अस्थायी विनिमय दर
- यह सर्वाधिक सरल प्रकार की प्रणाली है क्योंकि दर बाजार की शक्तियों द्वारा स्वतंत्र रूप से निर्धारित की जाती है, और मौद्रिक प्राधिकार विनिमय दर बाजार में किसी भी हस्तक्षेप से इनकार करते हैं।
- इस प्रणाली में, किसी भी समय किसी भी राशि से दर में उतार-चढ़ाव हो सकता है।
- सरकार की नीति द्वारा आरोपित किए गए किसी भी प्रतिबंध के बिना, मांग तथा आपूर्ति की शक्तियों द्वारा बाजार में प्रतिदिन लोचशील विनिमय दरों का निर्धारण किया जाता है।
- लाभ: अत्यधिक पारदर्शी और अत्यधिक कुशल बाजार।
स्थिर विनिमय दर
- एक निश्चित विनिमय दर व्यवस्था में, विनिमय दरों को स्थिर रखा जाता है अथवा अत्यंत संकीर्ण सीमाओं के भीतर, संभवतः दरों के प्रारंभिक समुच्चय से 1 प्रतिशत ऊपर या नीचे उतार-चढ़ाव की अनुमति प्रदान की जाती है।
- जब कोई देश अपनी विनिमय दर स्थिर करने के विकल्प का चयन करता है, तो स्थानीय मुद्रा को स्वर्ण, दूसरी मुद्रा या मुद्राओं के एक बास्केट के संदर्भ में एक सममूल्य समनुदेशित किया जाता है।
- जब विनिमय दर बहुत अधिक बढ़ने लगती है, तो सरकार अन्य मुद्राओं के मुकाबले अपनी मुद्रा के अवमूल्यन या पुनर्मूल्यन में हस्तक्षेप करती है। इसका उद्देश्य विनिमय दर को निर्दिष्ट सीमाओं के भीतर बनाए रखना है।
- इस प्रकार के सरकारी हस्तक्षेप प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो सकते हैं।
- प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के लिए अंतरराष्ट्रीय भंडार में परिवर्तन की आवश्यकता है।
- स्टरलाइज्ड प्रत्यक्ष हस्तक्षेप तब होता है जब केंद्रीय बैंक मुद्रा आपूर्ति में परिवर्तन से बचने के लिए समायोजन करते समय विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप करता है; दूसरे शब्दों में, केंद्रीय बैंक विदेशी मुद्रा बाजारों एवं राजकोष (ट्रेजरी) प्रतिभूति बाजारों में एक साथ लेनदेन करता है।
- ब्याज दरों या अन्य आर्थिक संकेतकों (आय, मुद्रास्फीति, इत्यादि) में वृद्धि अथवा कमी के माध्यम से विनिमय दरों को निर्धारित करने वाले कारकों को प्रभावित करने से अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप प्रभावित होता है। इस कदम में मुद्रा भंडार में परिवर्तन सम्मिलित नहीं है।
 
- स्थिर विनिमय व्यवस्थाओं के उदाहरणों में ब्रेटन वुड्स समझौते द्वारा 1944 से 1971 तक और 1999 तथा 2002 के मध्य यूरो क्षेत्र द्वारा स्थापित प्रणालियां शामिल हैं।
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अधिकीलित विनिमय दर
- एक अधिकीलित (आंकी गई) विनिमय दर व्यवस्था के अंतर्गत संचालन करने वाले देश विदेशी मुद्रा या खाते की कुछ इकाई (जैसे, सोना, यूरोपीय मुद्रा इकाई, आदि) के लिए अपनी मुद्रा का मूल्य “स्थिर/पेग” करते हैं।
- अतः, जब द्विपार्श्विक समता को बनाए रखा जाता है, घरेलू मुद्रा का मूल्य स्थिरक (एंकर) देश की मुद्रा के अनुरूप अन्य मुद्राओं के मुकाबले उतार-चढ़ाव करता है।
- इस प्रणाली में, बाजार की शक्तियां विनिमय दर का निर्धारण करती हैं।
- यदि विनिमय दर पूर्व निर्धारित सीमा से ऊपर या नीचे गमन करती है, तो सरकार मुद्रा की कीमत को सहनीय क्षेत्र में वापस ले जाने के लिए हस्तक्षेप करेगी।
- आंकी गई विनिमय दर के लाभ: कुछ देश आंकी गई विनिमय दर के पक्ष में हैं क्योंकि यह कम मुद्रास्फीति के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता की विश्वसनीयता को बढ़ाता है।
प्रबंधित फ्लोट विनिमय दर
- एक प्रबंधित फ्लोटिंग विनिमय दर (जिसे ‘डर्टी फ्लोट’ के रूप में भी जाना जाता है) एक विनिमय दर व्यवस्था है जिसमें विनिमय दर न तो पूर्ण रूप से मुक्त (अथवा फ्लोटिंग) होती है और न ही निश्चित होती है।
- इसके स्थान पर, केंद्रीय बैंक के हस्तक्षेप से मुद्रा के मूल्य को किसी अन्य मुद्रा (या मुद्राओं के एक समुच्चय/बास्केट के विरुद्ध) के मुकाबले एक सीमा में रखा जाता है।
- यह इस अर्थ में मुक्त रूप से अस्थायी विनिमय दर के सदृश है कि विनिमय दरों में दैनिक आधार पर उतार-चढ़ाव हो सकता है तथा आधिकारिक सीमाएं उपस्थित नहीं हैं।
- अस्थायी विनिमय दर से अंतर यह है कि मुद्रा दर को एक निश्चित दिशा में ज्यादा उतार-चढ़ाव से रोकने के लिए सरकार हस्तक्षेप कर सकती है।
- एक प्रबंधित फ्लोट के तहत, लक्ष्य अल्पावधि में तेज उतार-चढ़ाव को रोकना है, किंतु हस्तक्षेप दीर्घ अवधि में किसी विशेष दर को लक्षित नहीं करता है।
- एक प्रबंधित फ्लोटिंग विनिमय दर केंद्रीय बैंक को विनिमय दर के लिए एक कॉरिडोर स्थापित करने की शक्ति प्रदान करती है, ताकि मुद्रा के अधिमूल्यन अथवा अवमूल्यन की स्थितियों से बचा जा सके।
- कुछ सरकारें सीमाएं (बैंड) लगाती हैं जिसके भीतर विनिमय दर में उतार-चढ़ाव हो सकता है, जो इस दृष्टिकोण को “गंदा/डर्टी” कहने का एक कारण है।
विश्व में विनिमय दर व्यवस्थाएं
- विश्व के अधिकांश विकसित देशों में स्वतंत्र अस्थायी विनिमय दर व्यवस्था है जिसमें केंद्रीय बैंक मुद्रा के उतार-चढ़ाव को स्थिर करने के लिए विदेशी मुद्रा बाजारों में हस्तक्षेप नहीं करते हैं।
- दूसरी ओर, हांगकांग जैसे देश हैं जिनकी अमेरिकी डॉलर के साथ एक निश्चित समानता है तथा हांगकांग केंद्रीय बैंक इस स्थिरता को बनाए रखने के लिए अपनी मौद्रिक नीति का उपयोग करता है।
- अधिकांश उभरती अर्थव्यवस्थाएं इन दो चरम सीमाओं के मध्य कहीं स्थित हैं।
- वे अधिकांशतः ‘प्रबंधित फ्लोटिंग’ विनिमय दर व्यवस्था या ‘आकलन/पेग्ड’ प्रणाली के कुछ संस्करण की विशेषता रखते हैं।
भारत में विनिमय दर प्रणाली
- स्वतंत्रता के पश्चात की अवधि में, भारत की विनिमय दर नीति में सममूल्य प्रणाली से समुच्चय-आकलन (बास्केट-पेग) और आगे एक प्रबंधित फ्लोट विनिमय दर प्रणाली में स्थानान्तरण देखा गया है।
- 1971 में ब्रेटन वुड्स सिस्टम के विघटन के साथ, रुपया पाउंड स्टर्लिंग के साथ जुड़ गया था।
- एकल मुद्रा आकलन से जुड़ी कमजोरियों को दूर करने एवं विनिमय दर की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए, रुपया, सितंबर 1975 से, 1990 के दशक के आरंभ तक मुद्राओं के एक समुच्चय में आंका गया था।
- 1993 में, भारत आधिकारिक तौर पर एक “बाजार निर्धारित विनिमय दर” की ओर एक निश्चित आकलन से अमेरिकी डॉलर की ओर स्थानांतरित हो गया।
- यह 1990 के दशक के प्रारंभ में उदारीकरण एवं विनियमन सुधारों का हिस्सा था।
 
- तब से एक मुद्रा बाजार रहा है तथा साथ ही साथ भारतीय रिजर्व बैंक इस बाजार में सक्रिय रूप से व्यापार करता है।
- रुपये के अधिमूल्यन को रोकने के लिए आरबीआई विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप कर रहा है।
- आईएमएफ ने 2004 में भारत के विनिमय दर को “विनिमय दर हेतु बिना किसी पूर्व निर्धारित पथ के साथ फ्लोटिंग प्रबंधित” के रूप में वर्गीकृत किया है।

 
											


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