चोल राजवंश– चोल प्राचीन भारत का एक राजवंश था। तमिल चोल शासकों ने दक्षिण भारत और निकटवर्ती अन्य देशों में 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य का निर्माण किया।
चोलों के उल्लेख अत्यंत प्राचीन काल से ही प्राप्त होने लगते हैं। कात्यायन ने चोलों का उल्लेख किया है। अशोक के अभिलेखों में भी इसका उल्लेख उपलब्ध है। किंतु इन्होंने संगमयुग में ही दक्षिण भारतीय इतिहास को संभवत: प्रथम बार प्रभावित किया। संगमकाल के अनेक महत्वपूर्ण चोल सम्राटों में करिकाल अत्यधिक प्रसिद्ध हुए संगमयुग के पश्चात् का चोल इतिहास अज्ञात है। फिर भी चोल-वंश-परंपरा एकदम समाप्त नहीं हुई थी क्योंकि रेनंडु (जिला कुडाया) प्रदेश में चोल पल्लवों, चालुक्यों तथा राष्ट्रकूटों के अधीन शासन करते रहे।
चोल साम्राज्य वर्तमान तमिलनाडु और दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों में स्थित था, और इसका क्षेत्र के सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव था। यह राजवंश कला, वास्तुकला, साहित्य और समुद्री व्यापार में अपनी उपलब्धियों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है, जो इसे प्राचीन भारत के सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्रों में से एक बनाता है।
चोल राजवंश की स्थापना 9वीं शताब्दी ईस्वी में विजयालय चोल ने की थी। वह पल्लव राजवंश का सामंत था और शुरू में उसने वर्तमान भारत के तमिलनाडु में एक छोटे से क्षेत्र पर शासन किया था। हालाँकि, उन्होंने धीरे-धीरे पड़ोसी क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करके अपने राज्य का विस्तार किया और चोल राजवंश को दक्षिण भारत में एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया।
विजयालय के पश्चात् आदित्य प्रथम (871-907), परातंक प्रथम (907-955) ने क्रमश: शासन किया। परांतक प्रथम ने पांड्य-सिंहल नरेशों की सम्मिलित शक्ति को, पल्लवों, बाणों, बैडुंबों के अतिरिक्त राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय को भी पराजित किया। चोल शक्ति एवं साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक परांतक ही था। चोल राजवंश दक्षिण भारत में सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली राजवंशों में से एक बन गया। इसके शासनकाल को तमिलनाडु के इतिहास में स्वर्ण युग माना जाता है।
शासक | शासनकाल | विवरण |
---|---|---|
विजयालय चोल | 850-871 | चोला वंश के संस्थापक |
आदित्य प्रथम | 871-907 | विजयालय चोल के पुत्र, चोला वंश का दूसरा राजा |
परांतक प्रथम | 907-950 | आदित्य प्रथम के पुत्र, चोला वंश का तीसरा राजा |
गंडारादित्य | 950-957 | परांतक प्रथम के पुत्र, चोला वंश का चौथा राजा |
अरिंजय | 957-1014 | गंधारादित्य के पुत्र, चोला वंश का पांचवा राजा |
राजराजा चोल प्रथम | 1014-1044 | अरिंजय के पुत्र, चोला वंश के महानतम राजाओं में से एक |
राजेंद्र चोल प्रथम | 1012-1044 | राजराजा चोल प्रथम के पुत्र, चोला वंश के सबसे सफल राजाओं में से एक |
राजाधिराज चोल | 1044-1052 | राजेंद्र चोल प्रथम के पुत्र, चोला वंश का आठवां राजा |
वीरराजेंद्र चोल | 1063-1070 | राजेंद्र चोल प्रथम के पुत्र, चोला वंश का अंतिम राजा |
विजयालय चोल, चोल राजवंश के संस्थापक थे और उन्होंने 9वीं शताब्दी ईस्वी में तंजावुर से शासन किया था। वह एक महान योद्धा था जिसने पल्लवों को हराया और अपना राज्य स्थापित किया।
उन्हें तंजावुर शहर में पहला मंदिर बनाने का श्रेय भी दिया जाता है, जो चोल राजवंश का राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र बन गया था। विजयालय चोल ने चोल साम्राज्य की नींव रखी, जो आगे चलकर दक्षिण भारत के सबसे प्रमुख राजवंशों में से एक बन गया।
चोल राजवंश की अपने शासनकाल के दौरान कई राजधानियाँ थीं, लेकिन इनमें से सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण तंजावुर (तंजौर के नाम से भी जाना जाता था) थी, जो राजराजा चोल प्रथम और उनके पुत्र राजेंद्र चोल प्रथम के शासनकाल के दौरान राजधानी थी। तंजावुर वर्तमान तमिलनाडु, में स्थित था और चोल काल के दौरान तमिल संस्कृति और कला का एक प्रमुख केंद्र था।
चोल राजाओं ने तंजावुर और उसके आसपास कई शानदार मंदिरों और महलों का निर्माण किया, जिसमें यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल में शामिल प्रसिद्ध बृहदेश्वर मंदिर भी शामिल है। कावेरी नदी पर एक बंदरगाह के साथ, यह शहर व्यापार और वाणिज्य का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र था। चोल राजवंश के पतन के बाद भी तंजावुर एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक केंद्र बना रहा और यह आज भी भारत में एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल बना हुआ है।
चोलों के मंदिरों की विशेषता उनके विमानों और प्रांगणों में दिखलाई पड़ती है। इनके शिखरस्तंभ छोटे होते हैं, किंतु गोपुरम् पर अत्यधिक अलंकरण होता है। प्रारंभिक चोल मंदिर साधारण योजना की कृतियाँ हैं लेकिन साम्राज्य की शक्ति और साधनों की वृद्धि के साथ मंदिरों के आकार और प्रभाव में भी परिवर्तन हुआ। इन मंदिरों में सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रभावोत्पादक राजराज प्रथम द्वारा तंजोर में निर्मित राजराजेश्वर मंदिर, राजेंद्र प्रथम द्वारा गंगैकोंडचोलपुरम् में निर्मित गंगैकोंडचोलेश्वर मंदिर है। चोल युग अपनी कांस्य प्रतिमाओं की सुंदरता के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें नटराज की मूर्तियाँ सर्वात्कृष्ट हैं। इसके अतिरिक्त शिव के दूसरे कई रूप, ब्रह्मा, सप्तमातृका, लक्ष्मी तथा भूदेवी के साथ विष्णु, अपने अनुचरों के साथ राम और सीता, शैव संत और कालियदमन करते हुए कृष्ण की मूर्तियाँ भी उल्लेखनीय हैं।
चोलो के अभिलेखों आदि से ज्ञात होता है कि उनका शासन सुसंगठित था। राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी राजा मंत्रियों एवं राज्याधिकारियों की सलाह से शासन करता था। शासनसुविधा की दृष्टि से सारा राज्य अनेक मंडलों में विभक्त था। मंडल कोट्टम् या बलनाडुओं में बँटे होते थे। इनके बाद की शासकीय परंपरा में नाडु (जिला), कुर्रम् (ग्रामसमूह) एवं ग्रामम् थे।
चोल राज्यकाल में इनका शासन जनसभाओं द्वारा होता था। चोल ग्रामसभाएँ “उर” या “सभा” कही जाती थीं। इनके सदस्य सभी ग्रामनिवासी होते थे। सभा की कार्यकारिणी परिषद् (आडुगणम्) का चुनाव ये लोग अपने में से करते थे। उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेख से उस ग्रामसभा के कार्यों आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। उत्तरमेरूर ग्रामशासन सभा की पाँच उपसमितियों द्वारा होता था। इनके सदस्य अवैतनिक थे एवं उनका कार्यकाल केवल वर्ष भर का होता था। ये अपने शासन के लिए स्वतंत्र थीं एवं सम्राटादि भी उनकी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे।
चोल शासन के अंतर्गत साहित्य की भी बड़ी उन्नति हुई। इनके शाक्तिशाली विजेताओं की विजयों आदि को लक्ष्य कर अनेकानेक प्रशस्ति पूर्ण ग्रंथ लिखे गए। इस प्रकार के ग्रंथों में जयंगोंडार का “कलिगंत्तुपर्णि” अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त तिरुत्तक्कदेव लिखित “जीवक चिंतामणि” तमिल महाकाव्यों में अन्यतम माना जाता है। इस काल के सबसे बड़े कवि कंबन थे।
इन्होंने तमिल “रामायण” की रचना कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में की। इसके अतिरिक्त व्याकरण, कोष, काव्यशास्त्र तथा छंद आदि विषयों पर बहुत से महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी इस समय हुई।
चोल नरेशों ने सिंचाई की सुविधा के लिए कुएँ और तालाब खुदवाए और नदियों के प्रवाह को रोककर पत्थर के बाँध से घिरे जलाशय (डैम) बनवाए। करिकाल चोल ने कावेरी नदी पर बाँध बनवाया था। राजेंद्र प्रथम ने गंगैकोंड-चोलपुरम् के समीप एक झील खुदवाई जिसका बाँध 16 मील लंबा था। इसको दो नदियों के जल से भरने की व्यवस्था की गई और सिंचाई के लिए इसका उपयोग करने के लिए पत्थर की प्रणालियाँ और नहरें बनाई गईं। आवागमन की सुविधा के लिए प्रशस्त राजपथ और नदियों पर घाट भी निर्मित हुए।
आर्थिक जीवन का आधार कृषि थी। भूमिका स्वामित्व समाज में सम्मान की बात थी। कृषि के साथ ही पशुपालन का व्यवसाय भी समुन्नत था। स्वर्णकार, धातुकार और जुलाहों की कला उन्नत दशा में थी। व्यापारियों की अनेक श्रेणियाँ थीं जिनका संगठन विस्तृत क्षेत्र में कार्य करता था। नानादेश-तिशैयायिरत्तु ऐज्जूरुंवर व्यापारियों की एक विशाल श्रेणी थी जो वर्मा और सुमात्रा तक व्यापार करती थी।
चोल सम्राट शिव के उपासक थे लेकिन उनकी नीति धार्मिक सहिष्णुता की थी। उन्होंने बौद्धों को भी दान दिया। जैन भी शांतिपूर्वक अपने धर्म का पालन और प्रचार करते थे।
चोल राजवंश यूपीएससी परीक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है क्योंकि यह प्राचीन भारत के सबसे प्रमुख राजवंशों में से एक था। यूपीएससी परीक्षा के लिए चोल राजवंश का अध्ययन करते समय ध्यान रखने योग्य कुछ महत्वपूर्ण बिंदु यहां दिए गए हैं:
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चोल एक प्राचीन राजवंश थे जो 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में मौजूद थे। उन्होंने दक्षिणी भारत में एक शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य स्थापित की थी जिसमें तमिलनाडु और निकटवर्ती क्षेत्र शामिल थे।
चोलों का उल्लेख प्राचीन काल से होने लगता है। विद्वान कात्यायन ने चोलों का उल्लेख किया है और सम्राट अशोक के अभिलेखों में भी इसका उल्लेख होता है। हालांकि, वे संगमयुग में अधिक प्रभावी होने लगे, जिससे उन्होंने संगम काल में दक्षिण भारत के इतिहास पर पहली बार प्रभाव डाला।
संगमकाल के दौरान, करिकाल चोल अत्यंत प्रसिद्ध हुए। हालांकि, संगमकाल के बाद के चोल इतिहास के बारे में ज्यादातर जानकारी नहीं है।
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