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बैंकों का राष्ट्रीयकरण

बैंकों का राष्ट्रीयकरण क्या है?

  • बैंकों के राष्ट्रीयकरण को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में व्यक्त किया जा सकता है जिसके द्वारा राष्ट्रीय (केंद्र) अथवा राज्य सरकार को किसी भी विधान के माध्यम से निजी उद्योग, संगठन या यहां तक ​​कि परिसंपत्ति को अपने हाथों में लेने का अधिकार है, जिसे प्रायः सार्वजनिक स्वामित्व कहा जाता है।

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बैंक के राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया

  • भारत में, भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण करने के लिए सरकार द्वारा आरबीआई (सार्वजनिक स्वामित्व का हस्तांतरण) अधिनियम लागू करने के पश्चात बैंकों का राष्ट्रीयकरण प्रारंभ किया गया था।
  • परिणामतः, 1 जनवरी, 1949 को भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
  • इसी प्रकार, 1955 में, इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया का राष्ट्रीयकरण हुआ एवं बाद में इसे भारतीय स्टेट बैंक के रूप में नाम प्रदान किया गया, जो वर्तमान समय में, सार्वजनिक क्षेत्र का सबसे बड़ा बैंक एवं एक डी-एसआईबी (घरेलू व्यवस्थित रूप से महत्वपूर्ण बैंक) है।
  • तत्पश्चात वर्ष 1969 में भारत में कार्यशील 14 प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। 1980 में, अन्य 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया जिससे राष्ट्रीयकृत बैंकों की कुल संख्या बढ़कर 20 हो गई।

 

बैंकों का राष्ट्रीयकरण : क्यों आवश्यक है?

  • चीन (1962) एवं पाकिस्तान (1965) के साथ युद्धों ने सरकारी राजकोष (खजाने) पर अत्यधिक दबाव डाला।
  • लगातार दो वर्षों के सूखे के कारण खाद्यान्न की गंभीर कमी हो गई एवं राष्ट्रीय सुरक्षा (पीएल 480 कार्यक्रम) से भी समझौता किया गया।
  • सार्वजनिक निवेश में कमी के कारण परिणामी तीन वर्षीय योजना अवकाश ने कुल मांग को प्रभावित किया।
  • 1960-70 के दशक में भारत की आर्थिक वृद्धि मुश्किल से जनसंख्या वृद्धि को पीछे छोड़ पाई एवं औसत आय स्थिर हो गई।
  • 1951 एवं 1968 के मध्य वाणिज्यिक बैंकों द्वारा औद्योगिक क्षेत्र में ऋण वितरण का अंश लगभग दोगुना (34% से 68%) हो गया, जबकि कृषि को कुल ऋण का 2% से भी कम प्राप्त हुआ, इस तथ्य के बावजूद कि 70 प्रतिशत से अधिक आबादी थी उस पर निर्भर है।

 

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के उद्देश्य

  • प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को उधार – कृषि क्षेत्र एवं इसकी संबद्ध गतिविधियां राष्ट्रीय आय में सर्वाधिक वृहद योगदानकर्ता थीं।
  • राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य लोगों की बचत को अधिकतम संभव सीमा तक अभिनियोजित करना एवं उनका उपयोग उत्पादक उद्देश्यों के लिए करना है।
  • इसका उद्देश्य शहरी-ग्रामीण विभाजन को रोकने के लिए अंतर एवं अंतरा-क्षेत्रीय असंतुलन को कम करना भी है।
  • इसका उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक कल्याण सुनिश्चित करना था, जो भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित है।
  • बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक प्रमुख उद्देश्य वित्तीय समावेशन सुनिश्चित करने हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग का विस्तार करना था।
  • यह कदम बैंकिंग कोक्लास बैंकिंग (उच्च वर्गों हेतु बैंकिंग) सेमास बैंकिंग(आम जनता हेतु बैंकिंग/सोशल बैंकिंग) में स्थानांतरित करने का था।

 

बैंकों का राष्ट्रीयकरण : प्रभाव

  • बैंकों के राष्ट्रीयकरण से भारत की बैंकिंग प्रणाली में जनता का विश्वास जागृत हुआ।
  • भारत में राष्ट्रीयकरण के दो प्रमुख चरणों के पश्चात, 80% बैंकिंग क्षेत्र सरकारी स्वामित्व के अंतर्गत आ गया
  • बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात, भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की जमाराशि बढ़कर लगभग 800 प्रतिशत हो गई एवं अग्रिमों में 11,000 प्रतिशत का भारी उछाल आया।
  • सरकारी स्वामित्व ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की स्थिरता में जनता को निर्विवाद भरोसा एवं अपार विश्वास दिया।
  • भारतीय बैंकिंग प्रणाली देश के सुदूरवर्ती (दूर-दराज के) कोनों तक भी पहुँची, इस प्रकार वित्तीय समावेशन सुनिश्चित हुआ।
  • अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों, विशेष रूप से कृषि क्षेत्र को ऋण का अधिक न्यायसंगत एवं प्राथमिकता के आधार पर वितरण प्राप्त हुआ।
  • बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने भारतीय विकास प्रक्रिया को, विशेष रूप से हरित क्रांति की अवधि में निर्बाध एवं धारा रेखित किया।

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बैंकों का राष्ट्रीयकरण : आलोचना

  • बैंकों की दक्षता एवं लाभप्रदता में व्यापक कमी आई है।
  • एनपीए (गैर-निष्पादित परिसंपत्ति) का मुद्दा बैंकिंग क्षेत्र की लाभप्रदता में एक प्रमुख अवरोध बन गया।
  • बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने एक ब्याज दर संरचना को जन्म दिया जो अविश्वसनीय रूप से जटिल – विभिन्न प्रकार के ऋणों के लिए ब्याज की अलग-अलग दरें थी।
  • राष्ट्रीयकरण अभियान के कारण सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र के बैंकों के मध्य कम प्रतिस्पर्धा हुई।
  • बैंकिंग प्रणाली के कामकाज में नौकरशाही का रवैया एवं विलम्बन (टालमटोल)
  • उत्तरदायित्व एवं पहल की कमी, लालफीताशाही, अत्यधिक विलंब राष्ट्रीयकृत बैंकों की सामान्य विशेषताएं बन गईं।
  • इन बैंकों के अप्रबंधनीय विस्तार के कारण आर्थिक रूप से अव्यवहार्य शाखाओं मैं वृद्धि होने से भारी अतिशोध्य ऋण जैसी समस्याएं उत्पन्न होने लगीं।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण उन क्षेत्रों को ऋण का वितरण किया गया जो सुदृढ़ बैंकिंग नियमों के विरुद्ध थे एवं इस बेतरतीब ऋण वितरण ने इन संस्थानों की आर्थिक व्यवहार्यता को कमजोर कर दिया

 

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