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संपादकीय विश्लेषण- एक भारतीय विधायी सेवा की आवश्यकता

एक भारतीय विधायी सेवा की आवश्यकता – यूपीएससी परीक्षा के लिए प्रासंगिकता

  • जीएस पेपर 2:
    • भारतीय संविधान- संसद और राज्य विधानमंडल – संरचना, कार्यप्रणाली, कार्य संचालन, शक्तियां एवं विशेषाधिकार तथा इनसे उत्पन्न होने वाले मुद्दे .
    • शासन के महत्वपूर्ण पहलू- लोकतंत्र में सिविल सेवाओं की भूमिका।

संपादकीय विश्लेषण- एक भारतीय विधायी सेवा की आवश्यकता_3.1

समाचारों में: एक भारतीय विधायी सेवा की आवश्यकता

  • पी.पी.के. रामाचार्युलु को 1 सितंबर, 2021 को राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू द्वारा उच्च सदन के महासचिव के रूप में नियुक्त किया गया था।
  • रामाचार्युलु प्रथम राज्यसभा सचिवालय स्टाफ सदस्य थे, जो उच्च सदन के महासचिव बने।
  • महासचिव को ‘बाहर’ या नौकरशाही से जो प्रायः सेवानिवृत्त, से नियुक्त  करने की एक नजीर का – अध्यक्ष द्वारा अनुसरण समाप्त करना अत्यंत कठिन था।
  • यह संसद सचिवालय के लंबे समय से कार्यरत कर्मचारियों के लिए एक उचित प्रकार का योग्य संकेत था  एवं उनकी लंबे समय से मांग की वैधता को बहाल करने हेतु अभीष्ट दिशा सुधार था।

 

राज्य सभा के महासचिवों का इतिहास

  • 1952 में संसद के प्रथम गठन के पश्चात से, 11 महासचिवों ने रामाचार्युलु से पूर्व राज्यसभा को अपनी सेवाएं प्रदान की थी।
    • कुछ पार्श्व प्रवेश कर्मचारियों को छोड़कर, जो महासचिव बन सकते थे, अन्य सभी सिविल सेवाओं या अन्य सेवाओं से थे।
  •  प्रथम संसद में, राज्यसभा ने प्रथम महासचिव के रूप में एस.एन. मुखर्जी, एक सिविल सेवक का चयन किया।
    • यह 1929 से भारत के केंद्रीय विधान सभा से संलग्न विधान सभा विभाग (सचिवालय) की विरासत होने के बावजूद था।
    • हालांकि, एस.एन. मुखर्जी की महासचिव के रूप में नियुक्ति को उचित ठहराया जा सकता है क्योंकि उन्होंने संविधान सभा सचिवालय में संयुक्त सचिव तथा संविधान के मुख्य प्रारूपकार के रूप में कार्य किया था।
  • इसी तरह, सुदर्शन अग्रवाल उप सचिव के रूप में राज्यसभा में  सम्मिलित हुए  एवं 1981 में चौथे महासचिव बने।
  • 1993 से, रामाचार्युलु के 12वें महासचिव के रूप में नियुक्त होने तक, राज्य सभा के सभी महासचिव सिविल सेवा से थे।
  • उच्च सदन में 13 वें महासचिव के रूप में सेवानिवृत्त आईआरएस अधिकारी, पी. सी, मोदी की नियुक्ति पहली बार हुई थी।

 

महासचिव के पद के बारे में प्रमुख बिंदु

  • संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 98 संसद के दोनों सदनों के लिए पृथक-पृथक सचिवालयों  के कार्यक्षेत्र का प्रावधान करता है।
    • इसलिए, इस अनुच्छेद में निर्धारित सिद्धांत यह है कि सचिवालयों को कार्यपालिका सरकार से स्वतंत्र होना चाहिए।
  • आधिकारिक रैंक: कैबिनेट सचिव के समकक्ष रैंक वाला महासचिव, सभापति  एवं उपसभापति के बाद राज्यसभा का तीसरा सर्वाधिक प्रमुख पदाधिकारी होता है।
  • अनुलाभ एवं विशेषाधिकार: महासचिव को कुछ विशेषाधिकार भी प्राप्त हैं जैसे गिरफ्तारी से स्वतंत्रता, आपराधिक कार्यवाही से उन्मुक्ति तथा उनके अधिकारों का कोई भी अवरोध  एवं उल्लंघन सदन की अवमानना ​​के समान होगा।
  • प्रमुख उत्तरदायित्व: दोनों सदनों के महासचिवों को अनेक संसदीय एवं प्रशासनिक उत्तरदायित्व  अधिदेशित हैं।
    • महासचिव के पद द्वारा मांग की जाने वाली पूर्वापेक्षाओं में से एक संसदीय प्रक्रियाओं, प्रथाओं तथा पूर्व-उदाहरणों का अचूक ज्ञान  एवं व्यापक अनुभव है।

 

सिविल सेवकों को संसद के महासचिव के रूप में नियुक्त किए जाने के मुद्दे

  • विगत धारणाएं: सेवारत सिविल सेवकों या जो सेवानिवृत्त हो चुके हैं, वे लंबे समय से धारण की गई धारणाएं एवं उनके पिछले सेवाओं के प्रभाव के साथ आते हैं।
    • जब सिविल सेवकों को महासचिव के पद पर नियुक्त किया जाता है, तो इससे न केवल सचिवालय की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के उद्देश्य का अपमान होता है बल्कि हितों का टकराव भी होता है।
  • शक्तियों के पृथक्करण  के सिद्धांत का उल्लंघन: महासचिव के रूप में सिविल सेवकों की नियुक्ति  शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करती है।
    • सत्ता के एक क्षेत्र का प्रयोग करने  हेतु अधिदेशित अधिकारियों को सत्ता के अन्य क्षेत्र का प्रयोग करने की अपेक्षा नहीं हो सकती है।
  • संसदीय लोकतंत्र की पारस्परिक पर्यवेक्षी प्रकृति से समझौता: संसदीय राजनीति में, संसद की एक भूमिका कार्यपालिका के प्रशासनिक व्यवहार पर नजर रखना है।
    • दूसरे शब्दों में, संसद के पास प्रशासन की निगरानी के सभी कारण हैं।
    • सार्थक जांच प्रदान करने एवं कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने के लिए एक प्रभावी निकाय होने के लिए संसद के पास तकनीकी  एवं मानव संसाधन योग्यता होनी चाहिए जो कार्यपालिका के समान स्तर की हो।
    • एक समर्थ संसद का अर्थ है अधिक जवाबदेह कार्यपालिका।
    • यद्यपि, नौकरशाही निरंतर संसद को एक सक्षम  तथा समर्थ विधायी संस्था नहीं बनने देती है।

संपादकीय विश्लेषण- एक भारतीय विधायी सेवा की आवश्यकता_4.1

आगे की राह- एक भारतीय विधायी सेवा का गठन 

  • एक भारतीय विधायी सेवा की आवश्यकता:
    • कानून निर्मित करने वाले  विशालकाय निकाय: भारत में हजारों विधायी निकाय हैं, जिनमें पंचायत,  प्रखंड, पंचायत, जिला परिषद, नगर निगमों से लेकर राज्य विधानसभाओं  तथा राष्ट्रीय स्तर पर केंद्रीय संसद शामिल हैं।
  • कानून निर्मित करने वाले इन विशाल निकायों के बावजूद, उनके पास राष्ट्रीय स्तर पर अपनी सामान्य सार्वजनिक भर्ती तथा प्रशिक्षण एजेंसी का अभाव है।
  • एक भारतीय विधायी सेवा का निर्माण: एक सामान्य भारतीय विधायी सेवा एक संयुक्त तथा अनुभवी विधायी कर्मचारी संवर्ग का निर्माण कर सकती है, जिससे वे स्थानीय निकायों से लेकर केंद्रीय संसद में सेवा प्रदान कर सकें।
    • वर्तमान में, संसद एवं राज्य विधायिका के सचिवालय नौकरशाहों के अपने समूह को पृथक-पृथक रूप से भर्ती करते हैं।
    • सक्षम तथा समर्थ विधायी संस्थाओं को सुनिश्चित करने हेतु योग्य एवं अच्छी तरह से प्रशिक्षित कर्मचारियों की आवश्यकता होती है।
  • संवैधानिक प्रावधान: राज्यसभा, संविधान के अनुच्छेद 312 के तहत, राष्ट्रीय हित में, संघ एवं राज्यों दोनों के लिए एक अखिल भारतीय सेवा के निर्माण हेतु एक प्रस्ताव पारित कर सकती है। यह संसद को कानून द्वारा ऐसी सेवा का निर्माण करने में सक्षम बनाता है।

 

निष्कर्ष- एक भारतीय विधायी सेवा का निर्माण 

  • ब्रिटेन (यूनाइटेड किंगडम) में, हाउस ऑफ कॉमन्स के क्लर्क को  सदैव संसद की सेवा हेतु निर्मित किए गए विधायी  कर्मचारी समूह (स्टाफ पूल) से नियुक्त किया गया है।
  • अब समय आ गया है कि भारत ऐसी लोकतांत्रिक संस्थागत प्रथाओं से सामंजस्य स्थापित करें एवं इन्हें अपनाए।

 

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