Table of Contents
एलजीबीटीक्यू एवं मानवाधिकार- यूपीएससी परीक्षा के लिए प्रासंगिकता
- सामान्य अध्ययन II- विपरीतलिंगियों से संबंधित मुद्दे।
एलजीबीटीक्यू एवं मानवाधिकार चर्चा में क्यों है?
- LGBTQ के ऐतिहासिक निर्णय के 4 वर्ष पश्चात: पूर्ण नागरिकता की ओर मार्च। 6 सितंबर, 2018 को, ठीक चार वर्ष पूर्व, नवतेज सिंह जौहर एवं अन्य बनाम भारत संघ में, सर्वोच्च न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एक सुंदर विस्तृत निर्णय में, एलजीबीटीक्यूआई भारतीयों को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 377 के अंधकार से मुक्त कर दिया।
LGBTQ क्या है?
- LGBTQ का अर्थ समलैंगिक महिला, समलैंगिक पुरुष, उभयलिंगी एवं विपरीतलिंगी है। 1990 के दशक से उपयोग में, LGBTQ के साथ-साथ इसके कुछ सामान्य रूप, कामुकता एवं लैंगिक पहचान के लिए एक प्रछत्र शब्द के रूप में कार्य करते हैं।
क्या है आईपीसी की धारा 377?
- इसमें कहा गया है – अप्राकृतिक अपराध: जो कोई भी स्वेच्छा से किसी भी पुरुष, महिला अथवा पशु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध शारीरिक संभोग करता है, उसे आजीवन कारावास, या किसी एक अवधि के लिए कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसे दस वर्ष की अवधि तक के लिए बढ़ाया जा सकता है तथा वह अर्थदंड (जुर्माना) का भी भागी होगा।
- संहिता में कहीं भी “शारीरिक संभोग” एवं “प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध” शब्दों को ठीक से परिभाषित नहीं किया गया है।
न्यायपालिका द्वारा निभाई गई भूमिका
- नाज़ फाउंडेशन बनाम दिल्ली सरकार (2009) में दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय भारत में कामुकता एवं समानता न्यायशास्त्र के कानून में एक मील का पत्थर था।
- न्यायालय ने माना कि धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रतिष्ठापित समानता की गारंटी का उल्लंघन कर दो है, क्योंकि यह एक असंगत वर्गीकरण बनाता है एवं समलैंगिकों को एक वर्ग के रूप में लक्षित करता है।
- सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज़ फाउंडेशन (2013) में सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रतिगामी कदम में, भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड/आईपीसी) की धारा 377 को पुनर्स्थापित कर दिया।
- यद्यपि, नवतेज सिंह जौहर एवं अन्य बनाम भारत संघ (2018) में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि सहमति से समलैंगिक व्यवहार के लिए धारा 377 आईपीसी को लागू करना “असंवैधानिक” था।
- सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय व्यक्ति की पहचान एवं गरिमा की तलाश में एक बड़ी जीत है।
- इसने अधिकारों की प्रगतिशील प्राप्ति के सिद्धांत को भी रेखांकित किया।
आगे क्या
- यौन अभिविन्यास, लैंगिक पहचान एवं अभिव्यक्ति, लिंग, जाति, धर्म, आयु, विकलांगता, वैवाहिक स्थिति, गर्भावस्था, राष्ट्रीयता सत्ता अन्य आधारों के आधार पर सभी व्यक्तियों को समानता की गारंटी देने के लिए सर्वसमावेशक कानून की आवश्यकता है।
- कानून को सभी व्यक्तियों, सार्वजनिक एवं निजी तथा शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य देखभाल, भूमि एवं आवास तथा सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच के क्षेत्रों में समानता एवं गैर-विभेद के दायित्वों को लागू करना चाहिए।
- इसमें भेदभावपूर्ण व्यवहार, लागत एवं हानि को रोकने के लिए नागरिक उपायों एवं क्षतिपूर्ति करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए।
- हमें यह परिभाषित करने के लिए एक समानता कानून की आवश्यकता है कि समानता में क्या शामिल होगा।
- सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निजता के निर्णय में के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017) में निर्धारित किया कि समानता एवं स्वतंत्रता को पृथक नहीं किया जा सकता है एवं समानता में गरिमा तथा बुनियादी स्वतंत्रता का समावेश शामिल है।
आगे की राह
- समुदाय की बेहतर समझ के लिए विद्यालयों एवं महाविद्यालयों को पाठ्यक्रम में बदलाव लाना चाहिए।
- एक पृथक यौन अभिविन्यास या लैंगिक पहचान के व्यक्ति प्रायः डराने धमकाने, भेदभाव, कलंक एवं सामाजिक रुप से बहिष्करण की दर्दनाक कहानियां सुनाते हैं।
- शैक्षणिक संस्थानों एवं अन्य स्थानों पर लैंगिक तटस्थ शौचालय (जेंडर न्यूट्रल रेस्ट रूम) अनिवार्य होना चाहिए।
- माता-पिता एवं अभिभावकों को भी संवेदनशील होने की आवश्यकता है, क्योंकि गलतफहमी तथा दुर्व्यवहार का प्रथम बिंदु प्रायः घर से प्रारंभ होता है, जिसमें किशोरों को “रूपांतरण” उपचारों को चयनित करने हेतु बाध्य किया जाता है।
निष्कर्ष
- न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने नवतेज सिंह जौहर वाद की चौथी वर्षगांठ एवं आगे की यात्रा पर बोलते हुए, बीटल्स क्लासिक “ऑल यू नीड इज लव” का हवाला देते हुए कहा कि “सिर्फ प्यार ही काफी नहीं है”। अधिकार आवश्यक हैं जो समुदाय की गरिमा को बढ़ाएंगे।



TSPSC Group 1 Question Paper 2024, Downl...
TSPSC Group 1 Answer key 2024 Out, Downl...
UPSC Prelims 2024 Question Paper, Downlo...
