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भारत में आरक्षण प्रणाली का इतिहास और उसका विकास एक महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक पहलू है। यह प्रणाली समाज के पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने के उद्देश्य से शुरू की गई थी। इस आर्टिकल में हम आरक्षण प्रणाली के प्रमुख ऐतिहासिक घटनाक्रमों पर नजर डालेंगे।
भारत में आरक्षण का इतिहास
भारत में आरक्षण का इतिहास आज से नहीं बल्कि भारत की आज़ादी से पहले से है. सर्वप्रथम भारत में आरक्षण का इतिहास वर्ष 1902 में कोल्हापुर के राजा ने गैर-ब्राह्मण और पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा में आरक्षण की शुरुआत की थी। यह कदम उस समय के सामाजिक संरचना में एक महत्वपूर्ण बदलाव था, जिसने शिक्षा के क्षेत्र में समानता की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया।
वर्ष 1921 में, मैसूर ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की शुरुआत की। यह पहल एक दशक लंबे सामाजिक न्याय आंदोलन के बाद आई, जिसने गैर-ब्राह्मण जातियों के दमन के खिलाफ आवाज उठाई।
ब्रिटिश सरकार द्वारा वर्ष 1932 में सांप्रदायिक अवार्ड के तहत मुसलमानों, बौद्धों, सिखों, ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन्स, यूरोपीय और दलित वर्गों के लिए अलग निर्वाचक मंडलों की घोषणा की गई। बाद में, महात्मा गांधी और डॉ. बी. आर. आंबेडकर के बीच पूना समझौता हुआ, जिसमें दलित वर्गों के लिए हिंदू निर्वाचक मंडलों में सीटें आरक्षित की गईं।
वर्ष 1942 में वायसराय की कार्यकारी परिषद ने सिविल सेवाओं में अनुसूचित जातियों के लिए 8.5 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की। इस परिषद के सदस्य डॉ. बी. आर. आंबेडकर थे।
भारतीय संविधान में आरक्षण की प्रतिबद्धता
भारत की स्वाधीनता के बाद वर्ष 1950 में भारतीय संविधान के द्वारा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की प्रतिबद्धता को सुनिश्चित किया गया, एवं एक सरकारी आदेश ने धर्मांतरण करने वालों (चार सिख दलित जातियों को छोड़कर) को आरक्षण से बाहर रखा गया। हालांकि, 1990 के दशक तक सिख और बौद्ध जातियों को शामिल कर लिया गया, लेकिन ईसाई और मुस्लिम दलित आज भी आरक्षण से बाहर हैं।
भारत में आरक्षण का इतिहास-संविधान में संशोधन
1951: संविधान का पहला संशोधन- 1951 में, संविधान में पहला संशोधन किया गया ताकि न्यायालयों में कोटा के खिलाफ मामलों के सामने आने पर जाति-आधारित आरक्षण को कानूनी रूप से वैध ठहराया जा सके।
1990: मंडल आयोग की सिफारिशें-1990 में, प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की गई थी।
1992: सुप्रीम कोर्ट का फैसला-1992 में, सर्वोच्च न्यायालय ने जाति-आधारित आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा तय की, एवं साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने नरसिम्हा राव सरकार के द्वारा दी गई ऊपरी जातियों के गरीबों के लिए 10 प्रतिशत सरकारी नौकरियों का आरक्षण रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि आर्थिक स्थिति आरक्षण का आधार नहीं हो सकती। यह फैसला इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ (1992) के नाम से प्रसिद्ध है.
इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ, 1992
इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ (1992) के ऐतिहासिक मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़े वर्गों के लिए 27% सरकारी नौकरियों को आरक्षित करने के सरकार के निर्णय को बरकरार रखा। हालांकि, इसने उच्च जातियों के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए 10% सरकारी नौकरियों को आरक्षित करने वाली अधिसूचना को खारिज कर दिया। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि आरक्षण कुल जनसंख्या के 50% से अधिक नहीं होना चाहिए।
इस निर्णय ने ‘क्रीमी लेयर‘ की अवधारणा भी पेश की, जिसमें यह निर्धारित किया गया कि पिछड़े वर्गों के आर्थिक रूप से उन्नत व्यक्तियों को आरक्षण लाभों से बाहर रखा जाना चाहिए। इसके अलावा, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि आरक्षण प्रारंभिक नियुक्तियों तक सीमित होना चाहिए और पदोन्नति तक विस्तारित नहीं होना चाहिए।
2019: आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत कोटा- 2019 में, संसद ने संविधान के अनुच्छेद 15 में संशोधन विधेयक पारित किया, जिसमें उच्च शिक्षा और नौकरियों में गरीबों के लिए 10 प्रतिशत कोटा की अनुमति दी गई। इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
2020: विधानमंडल में आरक्षण की समय सीमा- विधानमंडल में आरक्षण की समय सीमा 1960 तक थी, लेकिन इसे हर 10 साल में बढ़ाया गया। आखिरी विस्तार 2010 में किया गया था जो 26 जनवरी 2020 तक वैध था। शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के लिए कोई समय सीमा कभी नहीं थी।
वर्ष 2023 में बिहार सरकार के द्वारा कराई गई जाति आधारित सर्वे के आधार पर 65% की आरक्षण की सीमा बढाया गया, लेकिन यह मामला पटना उच्च न्यायलय के पास गया, पटना उच्च न्यायालय ने पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जनजातियों (एसटी), अनुसूचित जातियों (एससी) और अत्यंत पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को 50% से बढ़ाकर 65% करने वाले बिहार संशोधन कानून को रद्द कर दिया गया था।
इसके बाद बिहार सरकार सर्वोच्च न्यायलय के पास पटना उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कराने पहुचीं परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को सोमवार को बड़ा झटका देते हुए, वंचित वर्ग के लिए आरक्षण 50% से बढ़ाकर 65% करने के फैसले पर रोक बरकरार रखी है। सुप्रीम कोर्ट इस मामले में सितंबर में विस्तृत सुनवाई करेगा।
राज्यों द्वारा 50% आरक्षण सीमा का उल्लंघन
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद, कई राज्यों ने ऐसे कानून बनाए हैं जो 50% आरक्षण सीमा से ज़्यादा हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र ने अपने राज्यों में आरक्षण की सीमा को बढाया है.
- तमिलनाडु आरक्षण अधिनियम, 1993, राज्य सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 69% आरक्षण की अनुमति देता है।
- आंध्र प्रदेश: जनवरी 2000 में, राज्यपाल ने अनुसूचित क्षेत्रों में शिक्षक पदों पर अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए 100% आरक्षण की घोषणा की, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया।
- महाराष्ट्र: सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) के लिए महाराष्ट्र राज्य आरक्षण अधिनियम 2018 मराठा समुदाय के लिए 12-13% कोटा लाभ प्रदान करता है, जिससे राज्य का आरक्षण प्रतिशत 50% से ऊपर चला जाता है।
आरक्षण से संबंधित संवैधानिक संशोधन
आरक्षण से संबंधित संवैधानिक संशोधन भारतीय संविधान में समावेशिता और समानता को बढ़ावा देने के लिए किए गए प्रावधान हैं। इन संशोधनों का उद्देश्य सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। आरक्षण से संबंधित मुद्दों को संबोधित करने के लिए कई संवैधानिक संशोधन किए गए हैं,
77वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1995: इस संशोधन से अनुच्छेद 16(4A) जोड़ा गया, जिससे राज्यों को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने की अनुमति मिली, यदि उनका अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है।
81वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2000: यह संशोधन अनुच्छेद 16 को संशोधित करता है एवं 16(4B) को जोड़ा गया, इस संशोधन के द्वारा व्यवस्था की गई है कि संविधान के अनुच्छेद 16 की किसी भी व्यवस्था के अधीन अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए वर्ष में जितने ख़ाली सरकारी पद आरक्षित हैं यदि वे पद उस वर्ष नहीं भरे जाते हैं तो उन पर आगामी वर्ष में या वर्षों में जो नियुक्तियों को सम्बद्ध नियुक्ति वर्ष के कुल पदों के पचास प्रतिशत आरक्षित पदों की अधिकतम सीमा निर्धारित करने के लिए शामिल नहीं किया जाएगा।
85वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2001: इस संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सरकारी कर्मचारियों के लिए ‘परिणामी वरिष्ठता’ के साथ पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति दी, जो जून 1995 से पूर्वव्यापी रूप से प्रभावी है।
103वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2019: वर्ष 2019 में 103वां संशोधन किया गया, यह आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए 10% आरक्षण प्रदान करने से सम्बंधित संशोधन है।
निष्कर्ष
भारत में आरक्षण प्रणाली ने सामाजिक और आर्थिक समानता की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हालांकि, यह प्रणाली समय-समय पर विवादों और चुनौतियों का सामना करती रही है, लेकिन इसके मूल उद्देश्य ने इसे समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है। आरक्षण प्रणाली का ऐतिहासिक विकास न केवल सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, बल्कि यह सामाजिक और राजनीतिक सुधारों की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया का हिस्सा भी है।