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97वें संशोधन पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
प्रासंगिकता
- जीएस 2: संघ और राज्यों के कार्यएवं उत्तरदायित्व, संघीय ढांचे से संबंधित मुद्दे और चुनौतियां, स्थानीय स्तर तक शक्तियोंएवं वित्त का हस्तांतरण और अंतर्निहित चुनौतियां।
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प्रसंग
हाल ही में, सर्वोच्च ने सहकारी समितियों से संबंधित 97 वें संविधान संशोधन के कतिपय प्रावधानों को निरस्त कर दिया।
मुख्य बिंदु
सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णय को सही ठहराया और कुछ प्रावधानों को 2:1 बहुमत से निरस्त कर दिया है।
जहां न्यायमूर्ति नरीमन और न्यायमूर्ति गवई ने भाग IX बी के केवल उस हिस्से को समाप्त कर दिया जो सहकारी समितियों से संबंधित था एवं राज्यों तक ही सीमित था, न्यायमूर्ति जोसेफ ने एक अलग निर्णय में संपूर्ण 97वें संवैधानिक संशोधन को निरस्त कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि सहकारी समितियां भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची की सूची II (राज्य सूची) में एक विषय हैं। इसलिए, संसद के पास इस विषय पर विधान निर्मित करने का संवैधानिक अधिदेश नहीं है।
97 वें संशोधन ने संसद को सत्ता बलापहार की शक्ति प्रदान की और सहकारी समितियों के संबंध में विधान निर्मित करने के राज्यों के विशेषाधिकार क्षेत्र में प्रत्यक्ष अतिक्रमण किया।
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पृष्ठभूमि
हमारे देश की सहकारी समितियों से संबंधित मुद्दों से निपटने के लिए 2011 में 97वां संविधान संशोधन अधिनियम अधिनियमित किया गया था।
संशोधन ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(सी), अनुच्छेद 43 बी और भाग IX बी में सहकारिता शब्द को समाविष्ट किया।
केंद्र सरकार का दृष्टिकोण
केंद्र ने 97वें संशोधन के महत्व पर बल दिया है। इसने कहा कि सहकारी समितियों के प्रबंधन में एकरूपता और दक्षता लाने के लिए यह प्रावधान समाविष्ट किया गया था।
सदस्यों द्वारा उत्तरदायित्व के अभाव के कारण सहकारी समितियां निकृष्ट सेवाओं तथा निम्न उत्पादकता से पीड़ित थीं।
निर्वाचन समय पर नहीं होते हैं। सहकारी समितियों को लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप चलने की आवश्यकता है। इन कारणों ने केंद्र के लिए हस्तक्षेप करना अपरिहार्य कर दिया है।
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सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया
यद्यपि, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि केंद्र का उद्देश्य एकरूपता लाना था, तो उसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 252 के माध्यम से ऐसा करना चाहिए था जो संसद की सहमति से दो या दो से अधिक राज्यों के लिए विधान निर्मित करने की शक्ति से संबंधित है।
यह माना गया कि संविधान के अनुच्छेद 368(2) के अनुसार, 97 वें संविधान संशोधन के लिए न्यूनतम आधे राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुसमर्थन की आवश्यकता है।
चूंकि 97वें संशोधन के विषय में ऐसा अनुसमर्थन नहीं किया गया था, अतः यह असंवैधानिक था और इसे निरस्त करने की आवश्यकता थी।
सर्वोच्च न्यायालय ने क्या मान्य ठहराया?
सर्वोच्च न्यायालय ने बहु राज्य सहकारी समितियों (एमएससीएस) से संबंधित प्रावधानों की वैधता को बरकरार रखा।
जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, अनुसमर्थन के अभाव के कारण इसने ‘बहु राज्य सहकारी समितियों (एमएससीएस)’ से संबंधित संशोधन के भाग IX बी के कुछ हिस्सों को समाप्त नहीं किया।
यहां सर्वोच्च न्यायालय का विचार था कि एमएससीएस एक राज्य तक सीमित नहीं है, इस प्रकार, इस खंड से संबंधित विधायी शक्ति भारत संघ में निहित होगी जैसा कि संविधान की 7वीं अनुसूची की प्रविष्टि 44 सूची I (संघ सूची) के अंतर्गत उल्लेखित है। .
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आगे की राह
निर्णय ने घोषित किया कि संविधान का भाग IX बी मात्र उस सीमा तक प्रवर्तित होगा जहां तक यह विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एमएससीएस से संबंधित है।